ज्ञानाश्रयी- निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक,संत कबीर की जयंती आज, जानिए उनका जीवन-दर्शन, इस आलेख के माध्यम से
भारत में ज्ञानाश्रयी- निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक,संत कबीर की आज जयंती है। कबीर ने भारत के सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र को अत्यधिक प्रभावित किया। वे महज विचारक,कवि या समाज सुधारक ही नहीं थे, वरन वे अपने आप में एक संस्था माने जाते हैं। वे आजीवन समाज जीवन में व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। लोक कल्याण हेतु ही उनका समस्त जीवन था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी, कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। आडंबरों, अंधविश्वासों और रूढ़िवादी मान्यताओं पर जैसा प्रहार कबीर ने किया, वैसा कोई दूसरा कर न सका। आइये, सामाजिक-सहित्यिक जागरण के अग्रदूत, सन्त कबीर के दर्शन और जीवन का परिचय पाते हैं।
ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ जन्म
ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को, वाराणसी में सन्त कबीर का आविर्भाव हुआ। उनके माता-पिता के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। कबीर का लालन-पालन जुलाहा दंपत्ति ने किया। कबीर ने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। वे अपनी अवस्था के बालकों से सर्वथा भिन्न थे। कबीरदास की खेल में कोई रुचि नहीं थी। बड़े होकर उन्होंने भी बुनकर का काम अपना लिया। स्वामी रामानंद कबीर दास के गुरु थे। संत कबीर ने सभी धर्मों के आडम्बरों पर खूब प्रहार किया। इस कार्य में उन्होंने साहित्य को हथियार बनाया। अपनी रचनाओं से वे मनुष्य मात्र के बीच उत्पन्न विद्वेष को दूर करने की शिक्षा देते थे।
कबीर की साहित्यिक रचनाएं और भाषा शैली
कबीर की वाणी का संग्रह बीजक नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- साखी, सबद और रमैनी। संत कबीर का भाषा पर पूरा अधिकार था। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, वह उसी रूप में प्रकट हुआ है। यह संप्रेषण की सबसे बड़ी कुशलता है। कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं जैसे, पंजाबी,राजस्थानी, अरबी, फारसी,बुंदेली इत्यादि। इसलिए इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी या सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम ढोंग के समक्ष प्रतिरोध का स्वर बना। अपने अनुभूत सत्य से उन्होंने सभी धर्मों की रूढ़िवादी मान्यताओं पर करारा चोट किया। हिंदी साहित्य के बड़े आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि, हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।
ऐसा रहा कबीर का जीवन दर्शन
कबीर बहती नदी की धारा सदृश थे। कबीर सदैव लोगों से स्वयं के भीतर झाँकने के लिए कहते थे। वे कहते थे कि ईश्वर को कहीं बाहर ना ढूँढे, अपितु वे नित्य लोगों का उनके भीतर विद्यमान ईश्वरीय तत्व से परिचय कराते थे।यह अद्वैत दर्शन ही है। उन्होंने धर्मों के बीच व्याप्त वैमनस्यता को दूर कर, एक साथ आने का आह्वान किया। अपनी सम्पूर्ण रचनाओं में कबीर लोगों को सीधे संबोधित करते थे। कबीर की रचनाएं उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थीं। यद्यपि वे वेद एवं पुराण, इनका प्रयोग करते थे, तथापि वे अपने अनुभवों पर आधारित दृष्टांत ही देते थे। वे अपने समय के दैनंदिनी जीवन से ही दृष्टांत प्रस्तुत करते थे। वास्तव में, उनकी वाणी सामाजिक व आध्यात्मिक मूल्यों की संवाहक है। सर्वहितकारी, मानवतावादी व परम समदर्शी सन्त थे।
कबीर जयंती पर देश कर रहा है याद
संत कबीर की जयंती पर समूचा देश उन्हें स्मरण कर, अपनी आदरांजलि व्यक्त कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ट्वीट कर संत कबीर को श्रद्धांजलि दी। प्रधानमंत्री ने लिखा कि, “संत कबीर दास जी को उनकी जयंती पर शत-शत नमन। उन्होंने न केवल सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया, बल्कि दुनिया को मानवता और प्रेम का संदेश दिया। उनका दिखाया मार्ग हर पीढ़ी को भाईचारा और सद्भावना के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहेगा।” उल्लेखनीय है कि काशी में जन्मे संत कबीर का निधन मगहर में हुआ, जो कि गंगा के उस पार है। तत्कालीन मान्यता थी कि काशी में मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है, जबकि मगहर में मृत्यु होने से जीव को जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिलता। संत कबीर ने मगहर में प्राण त्यागे, जाते-जाते भी उन्होंने रूढ़िवादी मान्यताओं पर प्रहार कर, सत्य का अन्वेषण करने की प्रेरणा दे गए।
जीने की राह दिखाते कबीर के दोहे
कबीर दास के दोहे सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह मनुष्य की जीवन यात्रा के लिए पथप्रदर्शक जैसे हैं। उनके कुछेक प्रेरक दोहे यहां दिए जा रहे हैं –
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ- यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ- इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !